कहती है कलम
AK-017 14th November 2018
बुझा-बुझा सा चेहरा लिए तू क्यों आ गया महफ़िल में |
झुलसा रहा तू क्यों सबको अपनी साँसों की गर्मी में ||
सोच रहा तू क्या यूँ अपना मुँह लटकाए |
चट्टानों में नदी अपनी राह स्वयं बनाए ||
मंज़िल की ओर कदम बढ़ा तू सबकुछ प्यारे भूल |
बन वीर कर द्रढ़ संकल्प स्थिति हो चाहे प्रतिकूल ||
कर्म कर तू कर्म कर मौत को अपनी टाल कर |
बन पतंगा मिट जा न जान की तू परवाह कर ||
बेसब्र नादान तू है चार दिन की जिंदगानी यह |
हँसता चल हँसाता चल आनंद-सरिता बन तू बह ||
कहती है यह कलम रुकना मत तू थकना मत तू |
काँटों पर चल कर भी आह तक करना मत तू ||
अपना लक्ष्य, अपनी साधना अधूरी मत छोड़ना तू।
कर्म ही है ‘पूजा’ बस यह बात गाँठ बाँध लेना तू।।
---- पूजा
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